लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनाने वालों पर कानून का हंटर कौन चलाएगा?
अजीत अंजुम
“मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है
क्या मिरे हक में फैसला देगा”
देश के किसी भी कोने में भीड़तंत्र के शिकार किसी शख्स की तस्वीरें देखता हूं, तो मुझे सुदर्शन फाकिर का ये मशहूर शेर याद आ जाता है. सत्ताधारी दल के कथित बेलगाम समर्थकों के हाथों पिटे आर्यसमाजी नेता स्वामी अग्निवेश अब फरियाद करें भी तो किससे करें?
देश और प्रदेश में जिस दल की सरकार है, उसी दल के शोहदों ने झारखंड के पाकुड़ में जय श्रीराम के नारे लगाते हुए स्वामी अग्निवेश को बुरी तरह पीटा है. कपड़े फाड़े, जमीन पर गिराकर लात-घूसों की बरसात कर दी. जब जख्मी जिस्म के साथ भगवाधारी अग्निवेश लड़खड़ाते हुए खड़े हुए, तो भी हमलावरों के नारे गूंज रहे थे: गीता का अपमान, नहीं सहेगा हिन्दुस्तान’ और ‘भारत माता की जय’. जाते-जाते कह भी गए कि अब भी होश में नहीं आए, तो बार-बार पिटोगे. लुटे-पिटे और लाचार अग्निवेश ने शिकायत दर्ज करा दी है.
कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए हैं, लेकिन सबको पता है कि इस भीड़ का कुछ नहीं बिगड़ेगा. उल्टे उनके पक्ष में जयकारा लगेगा. कोई माला पहना देगा. कोई इस पराक्रम के लिए मिठाई खिलाकर मुंह मीठा करा देगा. वैसे ही जैसे केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने अलीमुद्दीन अंसारी के कातिलों का मुंह मीठा कराया था.
हिंसक और हमलावर विचार
मैं सोशल मीडिया पर लगातार ऐसे लोगों को देख रहा हूं, जो झारखंड में स्वामी अग्निवेश की पिटाई को सही ठहराने में लगे हैं. 80 साल के इस शख्स के साथ हुई बदसलूकी को जस्टिफाई कर रहे हैं. हिंसक और हमलावर भीड़ के इस हमले को स्वामी अग्निवेश के विचारों को कुचलने का हथियार मानकर खुश हो रहे हैं. सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट और कमेंट में लिंचिंग दस्ते की वकालत करने वाले ये लोग हमारे आपके बीच भरे पड़े हैं, बहुतायत में. ये भीड़ सड़क पर किसी को दौड़ाकर पीटने वाली भीड़ से हजारों गुना बड़ी है
ये भीड़ तैयार हो रही है देश को भीड़तंत्र की तरफ ले जाने के लिए. असहमत आवाजों को दफन करने के ये तरीके इस भीड़ को ऊर्जा देते हैं. भीड़ की इस ऊर्जा से उन्हें ऊर्जा मिलती है, जो 'लड़ाओ और राज करो' के फॉर्मूले पर देश को धकेले रखना चाहते हैं, ताकि बुनियादी मुद्दों पर सरकार की घेराबंदी न हो सके.
देश तो वही है, जो चार साल पहले था. हिन्दू-मुसलमान भी वही हैं, जो चार साल पहले थे. मंदिर-मस्जिद का झगड़ा भी पुराना है. मसले भी वही हैं. मतभेद भी वहीं हैं. तो फिर बदला क्या है कि नफरतों की खेती तेज हो गई है ? इससे फायदा किसको हो रहा है? रोटी, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के बुनियादी मुद्दे को पीछे धकेलकर बार-बार हिन्दू-मुसलमान करने वालों का मकसद क्या है?
सरकार आपकी, फिर पिटाई क्यों?
अग्निवेश पर हमला करने वाले बीजेपी युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं का कहना है कि स्वामी अग्निवेश यहां के भोले-भाले आदिवासियों को भड़काने आए थे. ये पाकिस्तान और ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम कर रहे हैं. अगर ये सही है, तो उनके खिलाफ मामले दर्ज करवाइए. झारखंड और दिल्ली में आपकी सरकार है. इतनी एजेंसियां हैं. जांच करवाइए. अपने नेताओं पर दबाव बनाकर उनके खिलाफ कानून कार्रवाई करवाइए. सबूतों के साथ कोर्ट में जाइए. ये सारे तरीके हैं आपके पास, फिर ये कौन सा तरीका है? बर्बरता की हद तक जाकर आप किस हिन्दुस्तान और किस भारत माता की जयकार कर रहे हैं?
अग्निवेश ने कुछ नया तो कहा नहीं
क्या स्वामी अग्निवेश झारखंड आदिवासियों को भड़काने गए थे?
स्वामी अग्निवेश की पिटाई करने वालों को ‘वाह मेरे हिन्दू शेर’ कहकर बधाई देने वाले और जश्न मनाने वाले कह रहे हैं, ''अग्निवेश ने अपने बयानों में अमरनाथ का अपमान किया है. शिवलिंग का अपमान किया है. तिरुपति का अपमान किया है. लिहाजा उनकी पिटाई जितनी भी हुई, कम हुई. उन्हें और कूटा जाना चाहिए था.''
स्वामी अग्निवेश आर्यसमाजी हैं. पूजा-पाठ, कर्मकांड और मंदिरों के बारे में अग्निवेश जो बातें आज कह रहे हैं, यही बात आर्यसमाजी कहते रहे हैं. स्वामी अग्निवेश भी दशकों से यही सब बोलते कहते रहे हैं. फिर इसमें नई बात क्या है?
उनके विचार से हिन्दुओं का बड़ा तबका असहमत हो सकता है . उनकी राय को खारिज कर सकता है. करता भी रहा है. उनके समर्थकों की बहुत छोटी सी दुनिया है. उनकी बैठकों में चंद सौ लोग ही होते हैं. उनके बोलने से हम-आप असहमत हो सकते हैं. उनके खिलाफ लिख-बोल सकते हैं. उनकी सभाओं का बहिष्कार या उनके कार्यक्रमों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं. काले झंडे दिखा सकते हैं. अगर किसी की धार्मिक या राजनीतिक भावनाएं आहत हो रही हैं, तो उन पर मुकदमा ठोक सकते हैं, लेकिन ये क्या कि लंपटों काएक झुंड 80 साल के शख्स को जमीन पर गिरा कर पीटने लगे. उसके कपड़े फाड़कर उसे सरे आम नंगा करने पर उतारू हो जाए. उस पर लात-जूतों की बारिश करने लगे. अहसमत आवाजों को कुंद करने का ये कौन सा तरीका है?
और अगर ये तरीका है, तो कल को दूसरा या तीसरा पक्ष आपके विचारधारियों और पुरोधाओं के साथ ऐसा ही बर्ताव करने लगे तो?
हिंसा करके ठहाके लगाने वाले कौन हैं?
अराजकता के चरम की तरफ देश को क्यों ढकेलना चाहते हैं आप? बेंगलुरु में गौरी लंकेश को गोलियों से छलनी किया गया था, तब भी सोशल मीडिया पर लोग ठहाके लगा रहे थे. उनकी हत्या के लिए उनके विचारों को जिम्मेदार ठहरा रहे थे. एक महिला को उसके विचारों की वजह से मार दिया गया था और उसके कत्ल को जस्टिफाई किया जा रहा था.
मारने वाला जब पकड़ा गया, तो उसने भी अपने बयान में यही कहा कि उसने अपने धर्म की रक्षा के लिए गौरी की हत्या की है. उसे यही बताया गया था कि गौरी से धर्म को खतरा है. वैसे ही तर्क फिर दिए जा रहे हैं. नफरतों की ऐसी फसल बोई जा रही है कि आने वाले बुरे दौर की तस्वीरें जेहन में कौंधने लगती है.
अभी-अभी एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत में साल 2018 के पहले 6 महीनों में हेट क्राइम के 100 मामले दर्ज किए गए. इसमें ज्यादातर शिकार दलित, आदिवासी, जातीय और धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग और ट्रांसजेंडर बने हैं. आंकड़े डराने लगे हैं कि हालात काबू में आने के बजाए खतरे के निशान को पार करता जा रहा है.
भीड़तंत्र को कोई भड़का रहा है?
सोमवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने भीड़तंत्र पर रोक लगाने की नसीहत दी और अगले ही दिन भीड़तंत्र की लिंचिंग मानसिकता के सबूत के तौर पर ताजा तस्वीरें भी सामने आ गई. कहीं गोहत्या के नाम पर, कहीं बीफ के नाम पर, कहीं हिन्दू-मुसलमान के नाम पर, कहीं अफवाह के नाम पर, लोग मारे जा रहे हैं. बीते चार सालों में ही ऐसी घटनाओं की बाढ़ आ गई है.
झारखंड में लिंचिंग के आरोप में बंद सजायाफ्ता कातिलों के गले में माला डालकर मुंह मीठा कराने वाले केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने चौतरफा लानत-मलामत के बाद माफी भले ही मांग ली हो, लेकिन सच तो यही है कि इस भीड़ को पता है कि उसके पीछे सत्ता है. तंत्र है. नेता हैं. विधायक हैं. सांसद हैं. मंत्री हैं और सोशल मीडिया पर उनके पक्ष में शोर मचाने के लिए हिन्दुत्ववादी दस्ते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कानून बनाओ
हिंसक भीड़ के हाथों लगातार हो रही हत्याएं रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगाई. संसद से नया कानून बनाने पर विचार करने को कहा. सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि भीड़तंत्र को देश का कानून रौंदने की इजाजत नहीं दी सकती. जांच, ट्रायल और सजा सड़कों पर नहीं हो सकती. ऐसी भीड़ का हिस्सा बने लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो और हत्या होने पर उनके खिलाफ सीधे 302 का मुकदमा दर्ज हो.
सुप्रीम कोर्ट की ये चिंता और संसद में पहले ही दिन गैर बीजेपी दलों के हंगामे के बाद भी अगर हालात नहीं बदले और सरकारों ने कड़े संदेश नहीं दिए, तो आने वाले महीनों में देश बहुत बुरे दौर से गुजरेगा.
दंगा आरोपियों से मिलकर मंत्री जी रो पड़े
दस दिन पहले की ही तो बात है, जब मोदी सरकार के घोर हिन्दुत्वादी मंत्री और नवादा के सांसद गिरिराज सिंह पहले अपने इलाके के दंगा आरोपियों से मिलने पहले जेल गए. फिर दंगा आरोपियों के परिजनों से मिलने उनके घर गए. बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के घर जाकर मंत्री जी इतने भावुक हो गए कि उनके सब्र का पैमाना छलक गया.
आंखों में आंसू आ गए. मंत्री जी की आंखों से लरजते आंसुओं को देखकर उनके साथ मौजूद कई कार्यकर्ता भी रो पड़े. मंत्री जी ने दंगा आरोपियों को शांति दूत घोषित कर दिया और बिहार सरकार पर शांति बहाली कराने वालों को जेल भेजने का आरोप लगाकर खुलेआम आरोपियों को समर्थन देने और इंसाफ दिलाने का ऐलान कर दिया.
गिरिराज सिंह बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के घर जाकर इतने भावुक हो गए कि उनके सब्र का पैमाना छलक गया.
गिरिराज सिंह के इस 'आंसू बहाओ' कार्यक्रम से दो दिन पहले ही मोदी सरकार के ही दूसरे मंत्री जयंत सिन्हा मॉब लिंचिंग के आरोपियों को माला पहनाते दिखे थे. झारखंड के मांस कारोबारी अलीमुद्दीन अंसारी नामक एक शख्स को गोमांस रखने के शक में पीट-पीटकर मारने वाली हत्यारी भीड़ के कुछ सजायाफ्ता चेहरे रांची हाईकोर्ट से जमानत पर छूटकर आए थे और सीधे जयंत सिन्हा के हजारीबाग वाले घर पर ले जाए गए थे. साथ में बीजेपी नेता थे. कार्यकर्ता थे. माला और मिठाई का इंतजाम था.
एक केंद्रीय मंत्री ने जेल से जमानत पर छूटे सजायाफ्ता कातिलों को माला पहनाकर और मुंह मीठा कराकर ये संदेश दे दिया कि हम तुम्हारे साथ हैं . बीजेपी के स्थानीय नेता और विधायक तो पहले से ही उनके साथ थे. निचली अदालत में हिंसक भीड़ के जिन चेहरों को अलीमुद्दीन अंसारी के कत्ल में दोषी पाया गया, वो चेहरे केंद्रीय मंत्री के सौजन्य से माला और मिठाई के पात्र बन गए.
सोशल मीडिया पर जयंत सिन्हा के साथ अंसारी के कातिलों की तस्वीरों वायरल हुई तो उनके पिता, पूर्व वित्त मंत्री और बीजेपी के बागी नेता यशवंत सिन्हा ने अपने ट्वीट में कहा, ‘’पहले मैं लायक बेटे का नालायक बाप था. अब भूमिका बदल गई है. यह ट्विटर है. मैं अपने बेटे की करतूत को सही नहीं ठहराता. लेकिन मैं जानता हूं कि इससे और गाली-गलौज होगी. आप कभी नहीं जीत सकते.’’
खतरे की तरफ देश चल पड़ा है?
अब आप समझिए कि देश किस तरफ जा रहा है. विदेश में पढ़ा-लिखा और मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर चुका मोदी का एक मंत्री अपने इलाके में हिन्दुत्व और गोरक्षा के नाम पर उत्पाती जत्थे को अपने पक्ष में करने के लिए कत्ल के सजायाफ्ता मुजरिमों को मिठाई खिलाकर संदेश देता है, तो हमेशा मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलने वाला दूसरा मंत्री दंगे के आरोपियों के घर जाकर आंसू बहा आता है. दंगा पीड़ितों से उसे कोई सहानूभूति नहीं, क्योंकि वो मुस्लिम है.
दंगा आरोपियों के घर जाकर आंसू झड़ते हैं, क्योंकि इन आंसुओं की कीमत है. ये आंसू वोट दिलवाने में मददगार साबित हो सकते हैं. देश में हिन्दू-मुसलमान को लड़ाने और बांटने वाली राजनीति के क्लाइमेक्स का वक्त जो आ रहा है. 2019 का चुनाव जो आ रहा है.
क्या करना होगा?
इन्हें क्या फर्क पड़ता है कि कोई अलीमुद्दीन मारा जाए या कोई अखलाक. कोई जुनैद मारा जाय या कोई असगर. जब तक ये मारे नहीं जाएंगे, तब तक हिन्दू एकजुट कैसे होंगे? गिरिराज सिंह नवादा जेल में दंगा के आरोपियों से मिलने गए, ये उतनी चौंकाने वाली बात नहीं है, जितनी जयंत सिन्हा की तरफ मॉब लीचिंग के सजायाफ्ता मुजरिमों को माला पहनाने की घटना.
कठुआ कांड के आरोपियों को बचाने के लिए निकली तिरंगा यात्रा में महबूबा मुफ्ती सरकार में शामिल बीजेपी के दो मंत्रियों ने हिस्सा लिया था. हंगामे के बाद उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी थी. केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा अखलाक के कातिलों के समर्थन में दादरी हो आए थे. उनके पदचिह्नों पर चलते हुए बीजेपी के कई और नेता भी दादरी गए थे.
ऐसी मिसालें देश के हर सूबे के नेताओं ने कायम की हैं. अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. सचेत होने का वक्त है. नेता तो वही करेंगे, जिससे उनके वोटों की फसल लहलहाए, लेकिन हम-आप तो सचेत हो ही सकते हैं.
Wednesday, July 18, 2018
Hafeez Judaai की कलम से
एक महान देश,जो रोज़ बरोज़ बिगड़ी हुए,हुडदंगी भीड़ के सामने शर्मिंदा हो रहा है.ऐसी भीड़ जिसे यह सिखाया गया है की अपने हर विरोधी,अपने हर आलोचक को भीड़ बनकर मार डालो.हिटलर ने अपने आलोचकों को ऐसे ही तो कुचला था .
स्वामी अग्निवेश पर किया गया जानलेवा हमला साबित करता है की समाज के लिए खड़ा होना किस कदर खतरनाक मोड़ पर आ गया है.हमे अफ़सोस है की एक बूढ़े समाजसेवी से जो लोग आज डरकर, भीड़ बनकर टूट पड़ रहें हैं, इनका भविष्य कितना आतंकी है.यह समझते होंगे की स्वामी अग्निवेश को पीट पीट कर सबको डरा लेंगे तो यह इनकी ग़लतफ़हमी है.
हम सब महात्मा गाँधी को मानने वाले लोग हैं,इनसे लड़ेंगे,इनकी तरह हथियार नही उठाएँगे मगर झुकेंगे भी नहीं.अब तो विश्वास और बढ़ गया की इस हिंसक भीड़ से तब तक लड़ना है जबतक या तो यह घुटनों के बल न आ जाए या तो हम खुद मार न दिए जाए.
स्वामी अग्निवेश पर उठा हर हाथ पापी अधर्म के पाले में खड़ा है.हम सब स्वामी जी के साथ हैं.यह संघर्ष का वक़्त है,एक दुसरे का हाथ थाम कर इन नफरत से भरे लोगों से मुकाबला कीजिये.मर जाइए,मिट जाइए मगर हर उसके खिलाफ़ रहिये जो अपने आलोचकों को खत्म करने पर अमादा है,जो सवालों से भागते हैं.जो देश को नफरत के सिवा आजतक कुछ दे नही सके.देश का हर सच्चा सेवक इस वक़्त स्वामी जी के साथ है....हम सब ऐसे हर कुकर्मो की भत्सर्ना करते हैं .आप सब हम सब को भले मार डालिए मगर अपने कुत्सित विचारों के सामने झुका नही पाएँगे.स्वामी जी हम सब साथ हैं...यह वार हम सब पर हुआ है...
#SwamiAgniveshAssaulted
एक महान देश,जो रोज़ बरोज़ बिगड़ी हुए,हुडदंगी भीड़ के सामने शर्मिंदा हो रहा है.ऐसी भीड़ जिसे यह सिखाया गया है की अपने हर विरोधी,अपने हर आलोचक को भीड़ बनकर मार डालो.हिटलर ने अपने आलोचकों को ऐसे ही तो कुचला था .
स्वामी अग्निवेश पर किया गया जानलेवा हमला साबित करता है की समाज के लिए खड़ा होना किस कदर खतरनाक मोड़ पर आ गया है.हमे अफ़सोस है की एक बूढ़े समाजसेवी से जो लोग आज डरकर, भीड़ बनकर टूट पड़ रहें हैं, इनका भविष्य कितना आतंकी है.यह समझते होंगे की स्वामी अग्निवेश को पीट पीट कर सबको डरा लेंगे तो यह इनकी ग़लतफ़हमी है.
हम सब महात्मा गाँधी को मानने वाले लोग हैं,इनसे लड़ेंगे,इनकी तरह हथियार नही उठाएँगे मगर झुकेंगे भी नहीं.अब तो विश्वास और बढ़ गया की इस हिंसक भीड़ से तब तक लड़ना है जबतक या तो यह घुटनों के बल न आ जाए या तो हम खुद मार न दिए जाए.
स्वामी अग्निवेश पर उठा हर हाथ पापी अधर्म के पाले में खड़ा है.हम सब स्वामी जी के साथ हैं.यह संघर्ष का वक़्त है,एक दुसरे का हाथ थाम कर इन नफरत से भरे लोगों से मुकाबला कीजिये.मर जाइए,मिट जाइए मगर हर उसके खिलाफ़ रहिये जो अपने आलोचकों को खत्म करने पर अमादा है,जो सवालों से भागते हैं.जो देश को नफरत के सिवा आजतक कुछ दे नही सके.देश का हर सच्चा सेवक इस वक़्त स्वामी जी के साथ है....हम सब ऐसे हर कुकर्मो की भत्सर्ना करते हैं .आप सब हम सब को भले मार डालिए मगर अपने कुत्सित विचारों के सामने झुका नही पाएँगे.स्वामी जी हम सब साथ हैं...यह वार हम सब पर हुआ है...
#SwamiAgniveshAssaulted
Saturday, July 14, 2018
आईये हम आपको ले चलते हैं #भारत से कहीं दूर । और #भारत के आस पास।
फ्रांस को पछाड़ छठी बड़ी इकनॉमी बनने का आखिर असली मतलब क्या है?
अभय कुमार सिंह
हाल ही में आपने अखबार, न्यूज चैनल और वेबसाइट पर ये हेडलाइन देखी होगी
फ्रांस को पीछे छोड़ भारत बना दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था....
फ्रांस को छोड़ा पीछे
India becomes sixth largest economy in the world, overtakes France
वर्ल्ड बैंक के हालिया आंकड़ों के विश्लेषण में ये बात सामने आई है. अब भारत की जीडीपी 2.59 खरब डॉलर पर पहुंच गई है और वो दुनिया में छठे स्थान पर है. फ्रांस 2.58 खरब डॉलर की जीडीपी के साथ सातवें स्थान पर है. सबसे पहले हमें ये जान लेना चाहिए कि 'बड़ी अर्थव्यवस्था' का कतई मतलब 'रईस अर्थव्यवस्था' से नहीं है. ये समझने की जरूरत है इस 'बड़ी अर्थव्यवस्था' के मायने क्या हैं.
फ्रांस की आबादी से 20 गुना ज्यादा भारत
वर्ल्ड बैंक के ही मुताबिक, जहां फ्रांस अपर इनकम ग्रुप वाले देशों की कैटेगरी में है, वहीं भारत लोअर मिडिल इनकम ग्रुप वाला देश है.
अब जीडीपी के ये मायने हैं कि फ्रांस की कुल आबादी 6 करोड़ 70 लाख है, उसकी जीडीपी है 2.58 खरब डॉलर. फ्रांस से 20 गुना ज्यादा यानी करीब 133 करोड़ की आबादी वाले भारत की जीडीपी है 2.59 खरब डॉलर.
मतलब कि फ्रांस के करीब साढ़े 6 करोड़ लोगों के पास जितना धन है, उतना ही करीब भारत के 133 करोड़ लोगों के पास है. जाहिर है प्रति व्यक्ति आय तो कम हो ही जानी है.
प्रति व्यक्ति आय में भारत कहीं पीछे
नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार कहते हैं कि हम जल्द ही यूएस, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी इकनॉमी हो जाएंगे. लेकिन देश की प्रति व्यक्ति आय अब भी फ्रांस से 20 गुणा कम है.
दरअसल, दुनिया के दूसरी सबसे ज्यादा आबादी वाला देश भारत लोगों की समृद्धि के मामले में काफी पीछे है. इसे समझने के लिए आपको भारत और फ्रांस की परचेसिंग पॉवर पैरिटी (PPP) पर आधारित प्रति व्यक्ति आमदनी देखनी होगी. वर्ल्ड बैंक के हालिया आंकड़ों के मुताबिक, भारत की प्रति व्यक्ति आय 7,060 डॉलर वहीं फ्रांस की 6 गुना ज्यादा 43,720 डॉलर है. इसी मामले में दुनियाभर में भारत का स्थान 123वां है वहीं फ्रांस का 25वां है.
Q-जानकारी
परचेजिंग पावर पैरिटी से मतलब है कि किसी सामान या सर्विस को दो अलग-अलग देश में खरीदने पर कितनी समानता और कितना अंतर है. इन कीमतों में अंतर से करेंसी की कीमत तय की जाती है. आमतौर पर ये डॉलर में आंका जाता है.
परचेजिंग पावर पैरिटी से ये भी तय किया जा सकता है कि दो देशों के बीच लिविंग स्टैंडर्ड में क्या अंतर है.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस
किसी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बिजनेस का अच्छा माहौल बनाना सबसे ज्यादा जरूरी है. ऐसे में वर्ल्ड बैंक दुनियाभर के देशों में बिजनेस के लिए अच्छे माहौल के कई पैरामीटर की जांच कर Ease of doing business की रैकिंग जारी करता है. इसमें भारत का 100वां स्थान है, वहीं फ्रांस का 31वां. ऐसे में अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में फ्रांस को पीछे छोड़कर भारत को कुछ फायदा होता नहीं दिख रहा है.
फ्रांस को पछाड़ छठी बड़ी इकनॉमी बनने का आखिर असली मतलब क्या है?
अभय कुमार सिंह
हाल ही में आपने अखबार, न्यूज चैनल और वेबसाइट पर ये हेडलाइन देखी होगी
फ्रांस को पीछे छोड़ भारत बना दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था....
फ्रांस को छोड़ा पीछे
India becomes sixth largest economy in the world, overtakes France
वर्ल्ड बैंक के हालिया आंकड़ों के विश्लेषण में ये बात सामने आई है. अब भारत की जीडीपी 2.59 खरब डॉलर पर पहुंच गई है और वो दुनिया में छठे स्थान पर है. फ्रांस 2.58 खरब डॉलर की जीडीपी के साथ सातवें स्थान पर है. सबसे पहले हमें ये जान लेना चाहिए कि 'बड़ी अर्थव्यवस्था' का कतई मतलब 'रईस अर्थव्यवस्था' से नहीं है. ये समझने की जरूरत है इस 'बड़ी अर्थव्यवस्था' के मायने क्या हैं.
फ्रांस की आबादी से 20 गुना ज्यादा भारत
वर्ल्ड बैंक के ही मुताबिक, जहां फ्रांस अपर इनकम ग्रुप वाले देशों की कैटेगरी में है, वहीं भारत लोअर मिडिल इनकम ग्रुप वाला देश है.
अब जीडीपी के ये मायने हैं कि फ्रांस की कुल आबादी 6 करोड़ 70 लाख है, उसकी जीडीपी है 2.58 खरब डॉलर. फ्रांस से 20 गुना ज्यादा यानी करीब 133 करोड़ की आबादी वाले भारत की जीडीपी है 2.59 खरब डॉलर.
मतलब कि फ्रांस के करीब साढ़े 6 करोड़ लोगों के पास जितना धन है, उतना ही करीब भारत के 133 करोड़ लोगों के पास है. जाहिर है प्रति व्यक्ति आय तो कम हो ही जानी है.
प्रति व्यक्ति आय में भारत कहीं पीछे
नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार कहते हैं कि हम जल्द ही यूएस, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी इकनॉमी हो जाएंगे. लेकिन देश की प्रति व्यक्ति आय अब भी फ्रांस से 20 गुणा कम है.
दरअसल, दुनिया के दूसरी सबसे ज्यादा आबादी वाला देश भारत लोगों की समृद्धि के मामले में काफी पीछे है. इसे समझने के लिए आपको भारत और फ्रांस की परचेसिंग पॉवर पैरिटी (PPP) पर आधारित प्रति व्यक्ति आमदनी देखनी होगी. वर्ल्ड बैंक के हालिया आंकड़ों के मुताबिक, भारत की प्रति व्यक्ति आय 7,060 डॉलर वहीं फ्रांस की 6 गुना ज्यादा 43,720 डॉलर है. इसी मामले में दुनियाभर में भारत का स्थान 123वां है वहीं फ्रांस का 25वां है.
Q-जानकारी
परचेजिंग पावर पैरिटी से मतलब है कि किसी सामान या सर्विस को दो अलग-अलग देश में खरीदने पर कितनी समानता और कितना अंतर है. इन कीमतों में अंतर से करेंसी की कीमत तय की जाती है. आमतौर पर ये डॉलर में आंका जाता है.
परचेजिंग पावर पैरिटी से ये भी तय किया जा सकता है कि दो देशों के बीच लिविंग स्टैंडर्ड में क्या अंतर है.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस
किसी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बिजनेस का अच्छा माहौल बनाना सबसे ज्यादा जरूरी है. ऐसे में वर्ल्ड बैंक दुनियाभर के देशों में बिजनेस के लिए अच्छे माहौल के कई पैरामीटर की जांच कर Ease of doing business की रैकिंग जारी करता है. इसमें भारत का 100वां स्थान है, वहीं फ्रांस का 31वां. ऐसे में अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में फ्रांस को पीछे छोड़कर भारत को कुछ फायदा होता नहीं दिख रहा है.
#इंडिया_के_मुसलमानो
मुल्क़ के आज़ाद हुऐ 70 साल हो गए लेकिन मुसलमानों के हालात में कोइ बदलाव नहीं हुआ बल्कि मुसलमान समाज इतना पिछड़ गया की आज देश के सबसे पिछड़े लाइन में खड़ा है मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गइ है और
मुल्क़ आज़ाद होने के बाद मुसलमानो के
हालात दिन-बा-दिन बदतर होते चले गए,
आज़ादी के पहले और आज़ादी मिलने के कुछ
सालो बाद तक मुसलमानों की हालत ठीक थी लेकिन धिरे हालत बद, से बदतर हो गईं जो अभी के सरकारी नौकरियों के आंकड़ों से साफ़ पता चलता है आज़ादी के समय मुसलमान सरकारी नौकरियों में 38% हुआ करते थे जो घटते-घटते
अब सिर्फ 1% रह गए हैं,
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में दिये गये आंकड़े ,
>देश में 6 से 14 वर्ष के 25% मुस्लिम बच्चे कभी स्कुल नहीं गए,
>अंडरग्रेजुएट कोर्स में पर 25 छात्रों में सिर्फ एक छात्र मुस्लिम हैं ,
>पोस्टग्रेजुएट कोर्स में पर 50 छात्रों में सिर्फ एक मुस्लिम छात्र हैं ,
>आइएएस अधिकारियों में सिर्फ 3% मुसलमान हैं,
>आइपीअस अधिकारियों में सिर्फ 4% मुसलमान हैं,
>आइएफ़एस अधिकारियों नें सिर्फ 1.8% मुसलमान हैं,
>आइआरएस अधिकारियों में सिर्फ 4.5% मुसलमान हैं,
रेलवे -4.5%, शिक्षा-6.5%, होम-7.3% ,पुलिस(सिपाही ) -6%
>राज्य लोक सेवा आयोग में-2.1%,
देश केमुस्लिम बहुल आबादी वाले मुस्लिम राज्य ,
आसाम -11.2%, पशिचम बंगाल -4.2%, केरल -10.4%, कर्नाटका -8.5%,
गुजरात -5.1%, तामिलनाडु -4.2%,
बिहार और युपी में मुसलमान अपनी आबादी के एक तिहाई फ़िसद सरकारी नौकरी में हैं |
भारत के मुस्लिम बहुल 12 राज्यों में नया्यपालिका में मुसलमान 7.8% हैं |
ये आंकड़े आबादी के हिसाब से बहुत कम हैं , ये आंकड़े ही बता रहे हैं की हालत कैसी है
आज़ादी के बाद देश के मुसलमानो को दूसरी क़ौमों की तरह
शिक्षा, रोजगार और बुनियादी ज़रूरतों पर
ध्यान देना चाहिए था, मगर आज़ादी के बाद
देश के हालात कुछ ऐसे बना दिए गए,और देश
के
मुसलमानो को इतना डरा दिया गया की देश
का मुसलमान शिक्षा, रोजगार, तरक्की और
बुनियादी ज़रूरतों को भूलकर अपनी इज़्ज़त
और जान की हिफाज़त पर ध्यान देने लगा,
देश की राजनितिक पार्टियों ने
भी मुसलमानो के इस डर को खूब भुनाया और
राजनितिक पार्टियां मुसलमानो के इस डर
से मिलने वाले वोट से सत्ता पर क़ाबिज़
होकर मज़े लूटती रही. मगर देश का मुसलमान
कल बर्बादी के जिस मोड़ पर खड़ा था आज
भी उसी मोड़ पर उसी तरह खड़ा है, देश
को आज़ाद हुए 70 वर्ष हो गए, इस दौरान
कई सरकारें बदली तो कई हुक्मराँ भी बदले,
मगर अफ़सोस मुसलमानो के हालात किसी ने
नही बदले, राजनितिक पार्टियों ने
मुसलमानो की आर्थिक और सामाजिक
स्थिति का जायजा लेने के लिए रंगनाथ
मिश्र आयोग और सच्चर कमेटी तो गठित
की मगर मुसलमानो की हालत सुधारने के
लिए इन कमेटियों की सिफारिशें
किसी पार्टी ने लागु नही की, आज़ादी के
इतने बरस बाद और तरक्की शुदा दौर में
मुसलमान खुद को पिछड़ा और ठगा सा महसूस
कर रहा है, जिसकी ज्यादातर ज़िम्मेदार
खुद को सेकुलर कहने वाली वो राजनितिक
पार्टियां हैं, जिन्होंने देश के
मुसलमानो को वोट बैंक से ज्यादा न
कभी समझा और ना कभी अहमियत दी है,,
इस पिछड़ेपन के ज़िम्मेदार काफी हद तक खुद
मुसलमान भी हैं, देश के मुसलमानो ने
कभी एकजुट होकर क़ौम की तरक्की के लिए
कोई ठोस कदम नही उठाया है, और एक दुर्भाग्य रहा के मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद के बाद कौ़म में कोइ लिडर नहीं आया जो पुरे समाज के दर्द को समझता और कौ़म की आवाज़ बनता मुसलमानो ने
अपनी सोच बदलने और राजनितिक
पार्टियों की गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने के
लिए कभी एक अदना कोशिश भी नहीं की,
इसलिए देश का मुसलमान आज़ादी की बाद से
अब तक वोट बैंक बनकर इस्तेमाल
होता आया है, अगर यही हालात रहे तो आगे
भी देश का मुसलमान इसी तरह इस्तेमाल
होता रहेगा,,,
अब हक़ मांगने से नही बल्कि छीनने से
मिलेगा,,बस ज़रूरत है आपके बेदार होने की ,,
वक़्त गुलशन को पुरा खुन हमने दिये,
आइ जब बहार तो कहते हैं तेरा काम नहीं
#पोस्ट #कोपी की हुई है।।
.
via- #Shakil_Rangrej_Rangrej
मुल्क़ के आज़ाद हुऐ 70 साल हो गए लेकिन मुसलमानों के हालात में कोइ बदलाव नहीं हुआ बल्कि मुसलमान समाज इतना पिछड़ गया की आज देश के सबसे पिछड़े लाइन में खड़ा है मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गइ है और
मुल्क़ आज़ाद होने के बाद मुसलमानो के
हालात दिन-बा-दिन बदतर होते चले गए,
आज़ादी के पहले और आज़ादी मिलने के कुछ
सालो बाद तक मुसलमानों की हालत ठीक थी लेकिन धिरे हालत बद, से बदतर हो गईं जो अभी के सरकारी नौकरियों के आंकड़ों से साफ़ पता चलता है आज़ादी के समय मुसलमान सरकारी नौकरियों में 38% हुआ करते थे जो घटते-घटते
अब सिर्फ 1% रह गए हैं,
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में दिये गये आंकड़े ,
>देश में 6 से 14 वर्ष के 25% मुस्लिम बच्चे कभी स्कुल नहीं गए,
>अंडरग्रेजुएट कोर्स में पर 25 छात्रों में सिर्फ एक छात्र मुस्लिम हैं ,
>पोस्टग्रेजुएट कोर्स में पर 50 छात्रों में सिर्फ एक मुस्लिम छात्र हैं ,
>आइएएस अधिकारियों में सिर्फ 3% मुसलमान हैं,
>आइपीअस अधिकारियों में सिर्फ 4% मुसलमान हैं,
>आइएफ़एस अधिकारियों नें सिर्फ 1.8% मुसलमान हैं,
>आइआरएस अधिकारियों में सिर्फ 4.5% मुसलमान हैं,
रेलवे -4.5%, शिक्षा-6.5%, होम-7.3% ,पुलिस(सिपाही ) -6%
>राज्य लोक सेवा आयोग में-2.1%,
देश केमुस्लिम बहुल आबादी वाले मुस्लिम राज्य ,
आसाम -11.2%, पशिचम बंगाल -4.2%, केरल -10.4%, कर्नाटका -8.5%,
गुजरात -5.1%, तामिलनाडु -4.2%,
बिहार और युपी में मुसलमान अपनी आबादी के एक तिहाई फ़िसद सरकारी नौकरी में हैं |
भारत के मुस्लिम बहुल 12 राज्यों में नया्यपालिका में मुसलमान 7.8% हैं |
ये आंकड़े आबादी के हिसाब से बहुत कम हैं , ये आंकड़े ही बता रहे हैं की हालत कैसी है
आज़ादी के बाद देश के मुसलमानो को दूसरी क़ौमों की तरह
शिक्षा, रोजगार और बुनियादी ज़रूरतों पर
ध्यान देना चाहिए था, मगर आज़ादी के बाद
देश के हालात कुछ ऐसे बना दिए गए,और देश
के
मुसलमानो को इतना डरा दिया गया की देश
का मुसलमान शिक्षा, रोजगार, तरक्की और
बुनियादी ज़रूरतों को भूलकर अपनी इज़्ज़त
और जान की हिफाज़त पर ध्यान देने लगा,
देश की राजनितिक पार्टियों ने
भी मुसलमानो के इस डर को खूब भुनाया और
राजनितिक पार्टियां मुसलमानो के इस डर
से मिलने वाले वोट से सत्ता पर क़ाबिज़
होकर मज़े लूटती रही. मगर देश का मुसलमान
कल बर्बादी के जिस मोड़ पर खड़ा था आज
भी उसी मोड़ पर उसी तरह खड़ा है, देश
को आज़ाद हुए 70 वर्ष हो गए, इस दौरान
कई सरकारें बदली तो कई हुक्मराँ भी बदले,
मगर अफ़सोस मुसलमानो के हालात किसी ने
नही बदले, राजनितिक पार्टियों ने
मुसलमानो की आर्थिक और सामाजिक
स्थिति का जायजा लेने के लिए रंगनाथ
मिश्र आयोग और सच्चर कमेटी तो गठित
की मगर मुसलमानो की हालत सुधारने के
लिए इन कमेटियों की सिफारिशें
किसी पार्टी ने लागु नही की, आज़ादी के
इतने बरस बाद और तरक्की शुदा दौर में
मुसलमान खुद को पिछड़ा और ठगा सा महसूस
कर रहा है, जिसकी ज्यादातर ज़िम्मेदार
खुद को सेकुलर कहने वाली वो राजनितिक
पार्टियां हैं, जिन्होंने देश के
मुसलमानो को वोट बैंक से ज्यादा न
कभी समझा और ना कभी अहमियत दी है,,
इस पिछड़ेपन के ज़िम्मेदार काफी हद तक खुद
मुसलमान भी हैं, देश के मुसलमानो ने
कभी एकजुट होकर क़ौम की तरक्की के लिए
कोई ठोस कदम नही उठाया है, और एक दुर्भाग्य रहा के मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद के बाद कौ़म में कोइ लिडर नहीं आया जो पुरे समाज के दर्द को समझता और कौ़म की आवाज़ बनता मुसलमानो ने
अपनी सोच बदलने और राजनितिक
पार्टियों की गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने के
लिए कभी एक अदना कोशिश भी नहीं की,
इसलिए देश का मुसलमान आज़ादी की बाद से
अब तक वोट बैंक बनकर इस्तेमाल
होता आया है, अगर यही हालात रहे तो आगे
भी देश का मुसलमान इसी तरह इस्तेमाल
होता रहेगा,,,
अब हक़ मांगने से नही बल्कि छीनने से
मिलेगा,,बस ज़रूरत है आपके बेदार होने की ,,
वक़्त गुलशन को पुरा खुन हमने दिये,
आइ जब बहार तो कहते हैं तेरा काम नहीं
#पोस्ट #कोपी की हुई है।।
.
via- #Shakil_Rangrej_Rangrej
Tuesday, July 3, 2018
ब्लॉग: हिंदू मुसलमान विवादों के आविष्कार का सियासी फ़ॉर्मूला
राजेश प्रियदर्शी
डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी
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अयोध्या में विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बने या न बने, दोनों ही हालत में अगर इससे किसी को कोई फ़ायदा हो सकता है तो वह बीजेपी ही है.
अगर मंदिर बना तो हिंदुत्व की जीत होगी, अगर नहीं बना तो पराजित बहुसंख्यक हिंदुओं से भाजपा के समर्थन में और अधिक मज़बूती से एकजुट होने का आह्वान किया जाएगा, यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी.
यह एक कामयाब फ़ार्मूला है, जीते तो जय जय, हारे तो हाय हाय, मतलब ये कि हिंदुओं की धार्मिक भावना की हांडी हमेशा आँच पर चढ़ी रहेगी.
इसी फ़ॉर्मूले के तहत लखनऊ में भाजपा के कुछ नेताओं ने एक ऐतिहासिक मस्जिद के ठीक सामने चौराहे पर लक्ष्मण की मूर्ति लगाने का प्रस्ताव रखा है.
मस्जिद के सामने 'लक्ष्मण की मूर्ति' पर विवाद
पर मस्जिद के इमाम ने एतराज़ किया है, उनका कहना है कि मस्जिद के सामने ईद-बकरीद की नमाज़ होती है और मुसलमान किसी मूर्ति के आगे नमाज़ नहीं पढ़ सकते.
इस तरह एक शानदार और फ़ायदेमंद विवाद का जन्म हो चुका है. ये जितना बढ़ेगा हिंदुत्ववादी कथानक हर हाल में मज़बूत होगा, साथ ही इस पूरे विवाद में अल्पसंख्यक मुसलमानों को बार-बार ये एहसास होता रहेगा कि वे शायद बराबर के नागरिक नहीं हैं.
हालाँकि टीलेवाली मस्जिद के इमाम कह रहे हैं कि वे लक्ष्मण की मूर्ति लगाने पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं है लेकिन ये मूर्ति मस्जिद के ठीक सामने नहीं लगनी चाहिए, भाजपा से जुड़े नेताओं का कहना है कि मूर्ति वहीं लगेगी, अगर मूर्ति कहीं और लगेगी तो विवाद कैसे होगा? विवाद नहीं होगा तो ये सब करने का फ़ायदा क्या है?
ये अनेक सियासी मास्टर स्ट्रोक्स में से एक है क्योंकि कांग्रेस, सपा और यहाँ तक कि बसपा भी अगर इस नए विवाद में पड़ेगी तो बीजेपी उसके ऊपर 'हिंदू विरोधी' होने का लेबल चिपकाएगी जो एक बड़ा सियासी जोख़िम है, इसलिए बीजेपी विरोधी चुप ही रहेंगे.
वैसे भी हिंदू भावना की राजनीति की कोई काट विपक्ष के पास नहीं है, वे या तो चुप रहते हैं या बीजेपी के नेताओं से मंदिरों-मठों में शीश झुकाने की होड़ लगाते हैं. विपक्ष सिर्फ़ अंक-गणित के भरोसे विचारों के संघर्ष को जीत लेना चाहता है जो मुमकिन नहीं है.
युवा भारत के विकास की हर सीढ़ी भविष्य की ओर नहीं गौरवशाली हिंदू अतीत की ओर जा रही है, देश के युवाओं का काम लक्ष्मण की मूर्ति से चल जाएगा, लखनऊ विश्वविद्यालय की हालत की बात विवाद से फ़ुर्सत मिलने पर फिर कभी.
लखनऊ दरअसल लखनपुरी है इसलिए वहाँ लक्ष्मण की भव्य प्रतिमा बननी चाहिए, मस्जिद के ठीक सामने इसलिए बननी चाहिए क्योंकि टीले वाली मस्जिद दरअसल लक्ष्मण टीले के ऊपर बनाई गई थी इसलिए मूर्ति वहीं बनेगी, बात ख़त्म.
इस विवाद के पीछे लखनऊ के पुराने बाशिंदे और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन की किताब 'अनकहा लखनऊ' है जिसमें उन्होंने मिली-जुली संस्कृति वाले शहर पर हिंदुओं का पौराणिक दावा पुख्ता करने की कोशिश की है.
लालजी टंडन का दावा है कि श्रीराम के भाई लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे, उन्होंने ही शहर की नींव रखी थी, उनका कहना है कि उनके पास पूरा इतिहास है.
लखनऊ शहर के नामकरण से जु़ड़ी कई कहानियाँ हैं. कुछ लोग टंडन की तरह इसका संबंध लक्ष्मण से जोड़ते हैं, वहीं 11वीं सदी के दलित राजा लाखन पासी के लखनपुरी की भी चर्चा होती है. कुछ इसे देवी लक्ष्मी के नाम पर बताते हैं और कुछ कहते हैं कि ये सुलक्षणापुरी थी यानी सौभाग्यशाली शहर.
यूपी में कमजोर होती ज़मीन पर चिंता में नरेंद्र मोदी
क्या सपा-बसपा के साथ आने से हिल गई है बीजेपी?
कब तक निभेगा 'बुआ' और 'बबुआ' का साथ?
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त्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य (बाएं) और दिनेश शर्मा (दाएं)
मज़ेदार बात ये है कि उत्तर प्रदेश के मौजूदा उप-मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा दो साल पहले लखनऊ के मेयर थे और उन्होंने पासी बिरादरी की एक सभा में महाराज लाखन पासी की मूर्ति लगवाने का वादा किया था. अब वही दिनेश शर्मा लक्ष्मण की मूर्ति लगवाने का वादा भी करेंगे.
अगर आप समझना चाहें तो समझ सकते हैं कि मूर्तियाँ लगवाने की बातें प्रतीकों और उनसे जुड़ी भावनाओं के राजनीतिक दोहन के अलावा कुछ नहीं हैं.
मगर इससे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला, भाजपा के लिए मार्के की बात ये है कि मुसलमानों को लक्ष्मण की मूर्ति लगाने पर एतराज़ है, इसलिए हिंदुओं को उनके ख़िलाफ़ संगठित होना चाहिए क्योंकि ये आस्था का प्रश्न है.
आस्था की राजनीति की सुविधा यही है कि उसे तथ्यों, तर्कों और नियम-क़ानूनों की परवाह करने की ज़रूरत नहीं. ये हिंदुओं का देश है, जैसा हिंदू चाहेंगे वैसा होगा. अगर ऐसा हुआ तो हिंदू खुश होंगे, नहीं हुआ तो नाराज़ होंगे. दोनों ही हालत में वोट हिंदू की तरह देंगे, नागरिक की तरह नहीं. और क्या चाहिए?
टीले वाली मस्जिद और लक्ष्मण की मूर्ति
श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का उस टीले से क्या संबंध था जिस पर मस्जिद बनाई गई, क्या उसे सचमुच लक्ष्मण टीला कहा जाता था, इन बातों के ऐतिहासिक, पुरातात्विक, पौराणिक, सांस्कृतिक और दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं दिए जा रहे, लेकिन भावनाएँ तो भावनाएँ हैं.
कुछ जानकार इलाहाबाद हाइकोर्ट के 2005 के उस आदेश का हवाला दे रहे हैं जिसमें कहा गया है कि सड़कों पर ऐसी जगहों पर कोई मूर्ति या होर्डिंग, इश्तहार वगैरह नहीं लगाए जा सकते जिससे ट्रैफ़िक बाधित हो या गाड़ी चलाने वालों की नज़रों के सामने उनका ध्यान भटकाने वाली कोई चीज़ आए.
भावनाएँ नियम-क़ानून से तो नहीं चलतीं और अगर भावनाएँ धार्मिक हुईं तो क्या ही कहने? भाजपा के नेता पूछ रहे हैं कि अगर लखनऊ में लक्ष्मण की मूर्ति नहीं लगेगी तो कहाँ लगेगी?
होशियार! ज़िल्लेसुबहानी त्रिवेंद्र सिंह रावत पधार रहे हैं
क्यों घबराये हुए हैं असम के 90 लाख मुसलमान
इसके अलावा कई हिंदू ये पूछ सकते हैं कि लक्ष्मण राम के साथ तो पूजे जाते हैं, राम-लखन-जानकी और हनुमान की मूर्तियाँ हर शहर के मंदिरों में मिलेंगी, हनुमान मंदिर गली-गली में हैं, लेकिन लक्ष्मण कहाँ पूजे जाते हैं?
चौराहे पर अकेले लक्ष्मण की मूर्ति लगाने का क्या तुक है? अगर उस अकेली मूर्ति की पूजा होगी तो उसका पूजन विधान क्या होगा? मसलन, कौन से मंत्र पढ़े जाएँगे?
अगर लक्ष्मण की मूर्ति सरदार पटेल की मूर्ति की तरह है जिसकी पूजा नहीं होगी, तो फिर ये आस्था का प्रश्न कैसे है? वैसे सरदार पटेल की मूर्ति जो स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी से बड़ी होने वाली थी, कब लगेगी?
सवालों का क्या है, बात मुख़्तसर है कि ये एक विवाद है और विवाद ऐसा-वैसा नहीं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का है. मतलब बीजेपी के काम का विवाद है.
बीजेपी के ही कितने नेताओं को वंदेमातरम् याद होगा, ये मालूम नहीं. लेकिन उसे देशभक्ति मापने का एकमात्र तराज़ू बना देना फ़ायदे का सौदा रहा. कुछ कट्टर मुसलमान धार्मिक नेताओं ने वंदेमातरम् में 'वंदे' को इबादत माना था और कहा था कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत की इजाज़त नहीं है इसलिए उन्हें इसे नहीं गाना चाहिए.
इसके बाद करोड़ों मुसलमानों को देशद्रोही साबित करने के तर्क के तौर पर "वे वंदेमातरम् गाने से इनकार करते हैं" को पेश किया गया और अब भी किया जा रहा है, इससे हिंदुओं की देशभक्ति पक्की होती है और मुसलमानों का देशद्रोह. लक्ष्मण की मूर्ति के मामले में भी ऐसा होगा.
हिंदू राष्ट्र, मुसलमान और जनहित
इस तरह के विवाद सावरकर और जिन्ना के इस विचार को मज़बूत बनाते हैं कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, वे शांति से साथ नहीं रह सकते.
हिंदू राष्ट्र के विचार को उस दिन ठोस तार्किक आधार मिल गया जिस दिन पाकिस्तान बना, लेकिन गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं को लगा कि उस प्रतिशोध भरे तर्क से बड़ा है वह आदर्श जिस पर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व वाला लोकतंत्र टिकेगा.
समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए ज़रूरी है देश की व्यवस्था ऐसी हो जो धर्म के आधार पर अपने नागरिकों के साथ भेदभाव न करे, यह वही आदर्श है जो आगे चलकर कुछ नेताओं की करनी की वजह से बदनाम सेक्युलरिज़्म बन गया.
बहुसंख्यक हिंदू जनता को पट्टी पढ़ाना आसान हो गया कि क्यों मुसलमानों को बराबरी का नागरिक होने का हक़ नहीं है, क्यों ये ज़रूरी है कि भारत हिंदू राष्ट्र बने और बहुसंख्यक हिंदू तय करें कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को इस देश में कैसे रहना चाहिए. और पढ़े-लिखे लोग भी पूछने लगे, 'तो इसमें क्या बुराई है?'
ऐसे जितने विवाद होंगे उसमें चित भी बीजेपी की, पट भी बीजेपी की इसलिए ऐसे बहुत सारे विवादों के लिए तैयार रहिए, चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, विपक्ष मुँह देखने के अलावा इसमें ज़्यादा कुछ करने की हालत में नहीं दिखता.
केवल समझदार लोग समझ सकते हैं कि जनभावना और जनहित दो अलग-अलग चीज़ें हैं. लक्ष्मण की मूर्ति जनभावना है और हैंडपंप जनहित.
राजेश प्रियदर्शी
डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी
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अयोध्या में विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बने या न बने, दोनों ही हालत में अगर इससे किसी को कोई फ़ायदा हो सकता है तो वह बीजेपी ही है.
अगर मंदिर बना तो हिंदुत्व की जीत होगी, अगर नहीं बना तो पराजित बहुसंख्यक हिंदुओं से भाजपा के समर्थन में और अधिक मज़बूती से एकजुट होने का आह्वान किया जाएगा, यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी.
यह एक कामयाब फ़ार्मूला है, जीते तो जय जय, हारे तो हाय हाय, मतलब ये कि हिंदुओं की धार्मिक भावना की हांडी हमेशा आँच पर चढ़ी रहेगी.
इसी फ़ॉर्मूले के तहत लखनऊ में भाजपा के कुछ नेताओं ने एक ऐतिहासिक मस्जिद के ठीक सामने चौराहे पर लक्ष्मण की मूर्ति लगाने का प्रस्ताव रखा है.
मस्जिद के सामने 'लक्ष्मण की मूर्ति' पर विवाद
पर मस्जिद के इमाम ने एतराज़ किया है, उनका कहना है कि मस्जिद के सामने ईद-बकरीद की नमाज़ होती है और मुसलमान किसी मूर्ति के आगे नमाज़ नहीं पढ़ सकते.
इस तरह एक शानदार और फ़ायदेमंद विवाद का जन्म हो चुका है. ये जितना बढ़ेगा हिंदुत्ववादी कथानक हर हाल में मज़बूत होगा, साथ ही इस पूरे विवाद में अल्पसंख्यक मुसलमानों को बार-बार ये एहसास होता रहेगा कि वे शायद बराबर के नागरिक नहीं हैं.
हालाँकि टीलेवाली मस्जिद के इमाम कह रहे हैं कि वे लक्ष्मण की मूर्ति लगाने पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं है लेकिन ये मूर्ति मस्जिद के ठीक सामने नहीं लगनी चाहिए, भाजपा से जुड़े नेताओं का कहना है कि मूर्ति वहीं लगेगी, अगर मूर्ति कहीं और लगेगी तो विवाद कैसे होगा? विवाद नहीं होगा तो ये सब करने का फ़ायदा क्या है?
ये अनेक सियासी मास्टर स्ट्रोक्स में से एक है क्योंकि कांग्रेस, सपा और यहाँ तक कि बसपा भी अगर इस नए विवाद में पड़ेगी तो बीजेपी उसके ऊपर 'हिंदू विरोधी' होने का लेबल चिपकाएगी जो एक बड़ा सियासी जोख़िम है, इसलिए बीजेपी विरोधी चुप ही रहेंगे.
वैसे भी हिंदू भावना की राजनीति की कोई काट विपक्ष के पास नहीं है, वे या तो चुप रहते हैं या बीजेपी के नेताओं से मंदिरों-मठों में शीश झुकाने की होड़ लगाते हैं. विपक्ष सिर्फ़ अंक-गणित के भरोसे विचारों के संघर्ष को जीत लेना चाहता है जो मुमकिन नहीं है.
युवा भारत के विकास की हर सीढ़ी भविष्य की ओर नहीं गौरवशाली हिंदू अतीत की ओर जा रही है, देश के युवाओं का काम लक्ष्मण की मूर्ति से चल जाएगा, लखनऊ विश्वविद्यालय की हालत की बात विवाद से फ़ुर्सत मिलने पर फिर कभी.
लखनऊ दरअसल लखनपुरी है इसलिए वहाँ लक्ष्मण की भव्य प्रतिमा बननी चाहिए, मस्जिद के ठीक सामने इसलिए बननी चाहिए क्योंकि टीले वाली मस्जिद दरअसल लक्ष्मण टीले के ऊपर बनाई गई थी इसलिए मूर्ति वहीं बनेगी, बात ख़त्म.
इस विवाद के पीछे लखनऊ के पुराने बाशिंदे और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन की किताब 'अनकहा लखनऊ' है जिसमें उन्होंने मिली-जुली संस्कृति वाले शहर पर हिंदुओं का पौराणिक दावा पुख्ता करने की कोशिश की है.
लालजी टंडन का दावा है कि श्रीराम के भाई लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे, उन्होंने ही शहर की नींव रखी थी, उनका कहना है कि उनके पास पूरा इतिहास है.
लखनऊ शहर के नामकरण से जु़ड़ी कई कहानियाँ हैं. कुछ लोग टंडन की तरह इसका संबंध लक्ष्मण से जोड़ते हैं, वहीं 11वीं सदी के दलित राजा लाखन पासी के लखनपुरी की भी चर्चा होती है. कुछ इसे देवी लक्ष्मी के नाम पर बताते हैं और कुछ कहते हैं कि ये सुलक्षणापुरी थी यानी सौभाग्यशाली शहर.
यूपी में कमजोर होती ज़मीन पर चिंता में नरेंद्र मोदी
क्या सपा-बसपा के साथ आने से हिल गई है बीजेपी?
कब तक निभेगा 'बुआ' और 'बबुआ' का साथ?
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त्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य (बाएं) और दिनेश शर्मा (दाएं)
मज़ेदार बात ये है कि उत्तर प्रदेश के मौजूदा उप-मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा दो साल पहले लखनऊ के मेयर थे और उन्होंने पासी बिरादरी की एक सभा में महाराज लाखन पासी की मूर्ति लगवाने का वादा किया था. अब वही दिनेश शर्मा लक्ष्मण की मूर्ति लगवाने का वादा भी करेंगे.
अगर आप समझना चाहें तो समझ सकते हैं कि मूर्तियाँ लगवाने की बातें प्रतीकों और उनसे जुड़ी भावनाओं के राजनीतिक दोहन के अलावा कुछ नहीं हैं.
मगर इससे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला, भाजपा के लिए मार्के की बात ये है कि मुसलमानों को लक्ष्मण की मूर्ति लगाने पर एतराज़ है, इसलिए हिंदुओं को उनके ख़िलाफ़ संगठित होना चाहिए क्योंकि ये आस्था का प्रश्न है.
आस्था की राजनीति की सुविधा यही है कि उसे तथ्यों, तर्कों और नियम-क़ानूनों की परवाह करने की ज़रूरत नहीं. ये हिंदुओं का देश है, जैसा हिंदू चाहेंगे वैसा होगा. अगर ऐसा हुआ तो हिंदू खुश होंगे, नहीं हुआ तो नाराज़ होंगे. दोनों ही हालत में वोट हिंदू की तरह देंगे, नागरिक की तरह नहीं. और क्या चाहिए?
टीले वाली मस्जिद और लक्ष्मण की मूर्ति
श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का उस टीले से क्या संबंध था जिस पर मस्जिद बनाई गई, क्या उसे सचमुच लक्ष्मण टीला कहा जाता था, इन बातों के ऐतिहासिक, पुरातात्विक, पौराणिक, सांस्कृतिक और दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं दिए जा रहे, लेकिन भावनाएँ तो भावनाएँ हैं.
कुछ जानकार इलाहाबाद हाइकोर्ट के 2005 के उस आदेश का हवाला दे रहे हैं जिसमें कहा गया है कि सड़कों पर ऐसी जगहों पर कोई मूर्ति या होर्डिंग, इश्तहार वगैरह नहीं लगाए जा सकते जिससे ट्रैफ़िक बाधित हो या गाड़ी चलाने वालों की नज़रों के सामने उनका ध्यान भटकाने वाली कोई चीज़ आए.
भावनाएँ नियम-क़ानून से तो नहीं चलतीं और अगर भावनाएँ धार्मिक हुईं तो क्या ही कहने? भाजपा के नेता पूछ रहे हैं कि अगर लखनऊ में लक्ष्मण की मूर्ति नहीं लगेगी तो कहाँ लगेगी?
होशियार! ज़िल्लेसुबहानी त्रिवेंद्र सिंह रावत पधार रहे हैं
क्यों घबराये हुए हैं असम के 90 लाख मुसलमान
इसके अलावा कई हिंदू ये पूछ सकते हैं कि लक्ष्मण राम के साथ तो पूजे जाते हैं, राम-लखन-जानकी और हनुमान की मूर्तियाँ हर शहर के मंदिरों में मिलेंगी, हनुमान मंदिर गली-गली में हैं, लेकिन लक्ष्मण कहाँ पूजे जाते हैं?
चौराहे पर अकेले लक्ष्मण की मूर्ति लगाने का क्या तुक है? अगर उस अकेली मूर्ति की पूजा होगी तो उसका पूजन विधान क्या होगा? मसलन, कौन से मंत्र पढ़े जाएँगे?
अगर लक्ष्मण की मूर्ति सरदार पटेल की मूर्ति की तरह है जिसकी पूजा नहीं होगी, तो फिर ये आस्था का प्रश्न कैसे है? वैसे सरदार पटेल की मूर्ति जो स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी से बड़ी होने वाली थी, कब लगेगी?
सवालों का क्या है, बात मुख़्तसर है कि ये एक विवाद है और विवाद ऐसा-वैसा नहीं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का है. मतलब बीजेपी के काम का विवाद है.
बीजेपी के ही कितने नेताओं को वंदेमातरम् याद होगा, ये मालूम नहीं. लेकिन उसे देशभक्ति मापने का एकमात्र तराज़ू बना देना फ़ायदे का सौदा रहा. कुछ कट्टर मुसलमान धार्मिक नेताओं ने वंदेमातरम् में 'वंदे' को इबादत माना था और कहा था कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत की इजाज़त नहीं है इसलिए उन्हें इसे नहीं गाना चाहिए.
इसके बाद करोड़ों मुसलमानों को देशद्रोही साबित करने के तर्क के तौर पर "वे वंदेमातरम् गाने से इनकार करते हैं" को पेश किया गया और अब भी किया जा रहा है, इससे हिंदुओं की देशभक्ति पक्की होती है और मुसलमानों का देशद्रोह. लक्ष्मण की मूर्ति के मामले में भी ऐसा होगा.
हिंदू राष्ट्र, मुसलमान और जनहित
इस तरह के विवाद सावरकर और जिन्ना के इस विचार को मज़बूत बनाते हैं कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, वे शांति से साथ नहीं रह सकते.
हिंदू राष्ट्र के विचार को उस दिन ठोस तार्किक आधार मिल गया जिस दिन पाकिस्तान बना, लेकिन गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं को लगा कि उस प्रतिशोध भरे तर्क से बड़ा है वह आदर्श जिस पर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व वाला लोकतंत्र टिकेगा.
समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए ज़रूरी है देश की व्यवस्था ऐसी हो जो धर्म के आधार पर अपने नागरिकों के साथ भेदभाव न करे, यह वही आदर्श है जो आगे चलकर कुछ नेताओं की करनी की वजह से बदनाम सेक्युलरिज़्म बन गया.
बहुसंख्यक हिंदू जनता को पट्टी पढ़ाना आसान हो गया कि क्यों मुसलमानों को बराबरी का नागरिक होने का हक़ नहीं है, क्यों ये ज़रूरी है कि भारत हिंदू राष्ट्र बने और बहुसंख्यक हिंदू तय करें कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को इस देश में कैसे रहना चाहिए. और पढ़े-लिखे लोग भी पूछने लगे, 'तो इसमें क्या बुराई है?'
ऐसे जितने विवाद होंगे उसमें चित भी बीजेपी की, पट भी बीजेपी की इसलिए ऐसे बहुत सारे विवादों के लिए तैयार रहिए, चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, विपक्ष मुँह देखने के अलावा इसमें ज़्यादा कुछ करने की हालत में नहीं दिखता.
केवल समझदार लोग समझ सकते हैं कि जनभावना और जनहित दो अलग-अलग चीज़ें हैं. लक्ष्मण की मूर्ति जनभावना है और हैंडपंप जनहित.
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